Friday 9 August 2013

तुलसीदासजी

तुलसीदासजी ने बताया है कि जैसे भोजन भूख मिटाते हैं,वैसे ही हरिभक्ति सुगम एवं सुखदाई है । लेकिन यह भक्ति भी सेवक-सेव्यभाव की होनी चाहिए । तुलसीदास के अनुसार सेवक सेव्यभाव की भक्ति के बिना संसार में हमारा उद्धार नहीं होगा । भक्ति के बारे में तुलसीदासजी ने भगवान् राम के मुख से कहलाया है कि जो लोग इहलोक और परलोक में सुख चाहते हैं, उन्हें यह समझ लेना जरूरी है कि भक्ति मार्ग अत्यन्त सुगम और सुखदायक है । ज्ञान का मार्ग तो बहुत कठिन है । उसकी सिद्धि हो जाए तो भी भक्तिहीन होने से वह भगवान को प्रिय नहीं होता । तुलसीदासजी कहते है कि भक्ति मार्ग में न तो योग है, न यज्ञ,न तप और न ही जप । इसके लिए तो सरल स्वभाव होना चाहिए । मन में कुटिलता नहीं होनी चाहिए और जो कुछ मिले उससे संतुष्ट रहना चाहिए । ऐसे भक्त के लिए सभी दिशाएं सदैव आनंदमयी रहती हैं ।

तुलसीदासजी ने अपनी भक्ति में विनय भावना को मुख्य स्थान दिया है । तुलसी की भक्ति दास्यभाव की भक्ती है । इस प्रकार की भक्ति में दैन्य एवं विनय भाव की प्रधानता है । अपने अभिमान का शमन करके इष्टदेव के शरण में जाने का उल्लेख उन्होंने किया है । तुलसीदासजी ने भक्ति की प्राप्ति के लिए सत्संग को प्रमुख स्थान दिया है । क्य़ोंकि संत लोग हमेशा भगवान पर आश्रित रहते हैं और उनके सम्पर्क में आने पर स्वाभाविक रूप से हमारे मन में भी भक्ति का उदय होता है । गोस्वामीजी ने तप, संयम, श्रध्दा, विश्वास, प्रेम आदि को भक्ति का प्रमुख साधन बताया है ।

तुलसी की भक्ति भावना मूलतः लोकमंगल भावना से प्रेरित है ।